भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि जिससे जितना-जितना गुण मिला है उनको उन गुणों को प्रदाता मानकर उन्हें अपना गुरु माना है l
भगवान दत्तात्रेय के समय काल में गुरु शिष्य परंपरा की बहुत महत्ता थी। किसी को अपना गुरु बनाकर उससे शिक्षा प्राप्त करना और उस शिक्षा को अपने जीवन में अनुशरण करके ही अग्रिम जीवन पथ पर अग्रसर होना अति आवश्यक था। लेकिन जब भगवान दत्तात्रेय को बहुत प्रयासों के बाद भी कोई उचित गुरु नहीं मिला तो उन्हे आभास हुआ कि व्यर्थ में किसी एक गुरु के अभाव में विलाप करने से अच्छा है। जीवन में जिस किसी से हमे सीख प्राप्त होती है उसे ही क्यों न गुरु माना जाये। गुरु बनाने का मूल उद्द्येश्य शिक्षा प्राप्त करने से हसी। तो जिस किसी से भी शिक्षा प्राप्त होती है। उसे गुरु के रूप में ही देखना चाहिए। इस प्रकार भगवान दत्तात्रेय ने 24 गुरुओं की अवधारणा प्रतिपादित की। जिनका वर्णन इस प्रकार से है।
1. पृथ्वी- जिस प्रकार पृथ्वी सभी जन को चाहे वो किसी स्वभाव या प्रकृति के हो उनको बिना किसी राग द्वेष के शरण देती है। हम इस धरती पर किसी भी रूप में रहते है चाहे हम कैसा भी व्यवहार इस धरती के प्रति करते है। ये धरती हमे शरण देती है फिर भी वो हमसे किसी प्रकार का उपहार की मांग नहीं करती है। हमे भले उसका उपकार माने या नहीं वो हमसे इसकी इच्छा नहीं रखती है। इसी प्रकार हमे उससे शीलवान धैर्यवान बनने की शिक्षा मिलती है। हमे भी पृथ्वी की तरह शीलवान होना चाहिए तथा बगैर किसी फल कि इच्छा किए बगैर अपने कर्म मे रमे रहना चाहिए।
2. आकाश- जिस प्रकार आकाश संपूर्णता लिए हुए होता है उसका अस्तित्व हर जगह व्याप्त होता है। भले ही वो हमारे पहुँच में न हो लेकिन वो हमे दृश्यमान होता है तथा एक विस्तार के साथ सम्पूर्ण परिवेश में स्थापित रहता है। उसे किसी प्रकार से सीमित नहीं किया जा सकता। उसी प्रकार से हमे सीख लेनी चाहिए की हमारे विस्तार की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए। हमे समस्त लोक के परिदृश्य में विद्यमान होने को अग्रसर होना चाहिए। जिस प्रकार आकाश अपनी संपूर्णता को सारे दिशाओं में विद्यमान रखता है। हमे भी अपने इस जीवन में संपूर्णता का अनुभव करते हुए अपने जीवन का विस्तार बनाए रखना चाहिए।
3. पवन- पवन का सबसे प्रमुख गुण शीतलता प्रदान करना तथा गंध का विस्तार करना है। साथ ही साथ पवन अपने प्रवाह को अपने वश में रखते हुए कभी भी जन को शीतलता तथा प्रवाह की गति को बढ़ाते हुए विनास दोनों स्वरूप को दिखा सकता है। पवन किसी भी परिवेश में अपने गुण को उसके अनुरूप निर्धारित करता है। अगर किसी परिवेश में जिस प्रकार की गंध उपलब्ध होती है पवन गंध को वातावरण में प्रवाहित करता है लेकिन जब उस गंध कि शक्ति क्षीण हो जाती है। तो पुनः अपने मूल रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार से हमे पवन से शीतलता अपने परिवेश के अनुसार अपने को ढालने और अपने मूल रूप से कभी भी विभक्त न होने की शिक्षा मिलती हिय।
4. जल- जल शुद्धता का प्रतीक है इस भौतिक जगत में किसी भी प्रकार की पवित्रता हेतु जल की ही आवश्यकता होती है। जल का द्वितीय और प्रमुख गुण है प्यास को बुझाना। जिस प्रकार जल हमे शुद्ध करता है और हमारे प्यास को तृप्ति प्रदान करता है। उसी प्रकार इंसान को पवित्रता का अनुशरण करना चाहिए जल की तरह स्वयं ही पवित्रता कि पहचान बन्नी चाहिए। और बिना किसी जरूरत के लोगो की प्यास बुझाना ही हमारा कर्तव्य। जल का एक और गुण तरलता है और किसी भी पात्र में रखने पर उसके स्वरूप अनुसार ढाल जाना और पुनः उस पात्र के त्याग के उपरांत अपनी मूल अवस्था को धारण कर लेना है।
भारतीय सनातन धर्म के ग्रन्थों मे कई स्थानों पर भगवान दत्तात्रेय का वर्णन देखने को मिलता है।उसी प्रकार से हमे भी अपने जीवन में जटिलता न रखते हुए तरलता का भाव रखना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में जल की तरह उसका स्वरूप ग्रहण कर लेना चाहिए लेकिन उसके बीतने के बाद अपने मूल स्वरूप को पुनः धारण कर लेना चाहिए।
5. अग्नि- अग्नि का मूल स्वभाव ऊर्जा प्रदान करना है। लोगो को प्रकाश प्रदान करना है तथा किसी भी स्वरूप में अशुद्धता को ग्रहण न करना है। उसी प्रकार एक मनुष्य को अपने जीवन का लक्ष्य इस प्रकार से रखना चाहिए कि वो अन्य के जीवन में प्रकाश का विस्तार करें। अपने जीवन में हमेशा ऊर्जा और ऊष्मा बना कर रखे। तथा किसी भी परिस्थिति में अशुद्धता से दूरी बना कर रखे। और अपने जीवन को प्रकाशमान बनाए।
6. यम- यम को न्याय के देवता के रूप में देखा जाता है। जो अच्छे और बुरे में अंतर बना कर रखता है साथ ही साथ यम का महत्वपूर्ण कार्य मनुष्यलोक में नियंत्रण बना कर रखना होता है। मनुष्य को भी इस प्रकार से अपने जीवन में एक नियंत्रण बना कर रखना चाहिए। और अच्छे एवं बुरे के प्रति न्याय की भावना रखनी चाहिए। जिस प्रकार बिना किसी लोभ अथवा मोह के यम नीति और अनीति के मध्य न्याय बना कर रखता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी बिना किसी बाह्य प्रभाव के नीति अनीति के मध्य अंतर बना कर रखना चाहिए। और एक आदर्श जीवन की ओर अग्रसर होना चाहिए।
7. सूर्य- जिस प्रकार सूर्य अपने कर्म के प्रति नियत होता है। वह प्रतिदिन अपने समय से उदय और अपने समय से अस्त होता है। बिना किसी विलंब के वो अपना प्रकाश समाज में प्रदान करता है। और बिना किसी भेदभाव के अपना प्रकाश प्रदान करता है। वो न तो किसी समुदाय विशेष में और न ही किसी व्यक्ति विशेष के लिए भेद रखता है। एक दिन भी ऐसा नहीं होता जिस दिन उसका उदय न हो। इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने समय का नियत और अपनी सेवाएँ देते समय किसी में भी किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखना चाहिए।
8. चंद्रमा- चंद्रमा का प्रमुख गुण शीतलता और प्रकाश दोनों एक साथ प्रदान करना। जब रात्रि पूरे रूप में संसार को अपने आगोस में ले लेता है। तब चंद्रमा के पास स्वयं प्रकाश न होते हुए भी वह सूर्य से प्रकाश ग्रहण कर संसार में घनघोर रात्रि में हमे प्रकाश प्रदान करता है और साथ ही साथ शीतलता प्रदान करता है। तथा अपनी कला के क्षीण होते समय भी अपनी अवस्था को बनाए रखता है। इसी प्रकार मनुष्य को भी संसाधनो की चिंता करे बगैर समाज में सहयोग की भावना रखनी चाहिए। और किसी भी स्थिति में अपनी शालीनता को बना कर रखना चाहिए।
9. कपोत (कबूतर)- जिस प्रकार पेड़ पर बैठे कबूतर को पकड़ने के लिए शिकारी जाल बिछाता है और उन पर अनाज के दाने बिखेर देता है। और कबूतर अनाज के दानो के लोभ में आकार बिछे हुए जाल की ओर ध्यान नहीं देता और उस जाल में शिकारी के हाथों फंस जाता है। इसी प्रकार मनुष्य भी लोभ के दायरे में आकार अपने अहित कि ओप अग्रसर होता है। अतः कबूतर से सीख लेकर इंसान को बगैर किसी प्रलोभन में आए बगैर अपना अहित होने से बचना चाहिए।
10. अजगर- भगवान दत्तात्रेय हमे अजगर से संतोषयुक्त जीवन जीने का सीख देते है। जिस प्रकार एक अजगर जब उसकी स्थिति सही नहीं होती तो मिट्टी भी खाकर अपना जीवन यापन करता है तथा स्थितियों को सही होने का इंतज़ार करता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी अगर उसकी परिस्थितियाँ सही नहीं हो तो उनके सही होने तक संतोषी रहने की शिक्षा लेनी चाहिए। और समय अनुसार अपनी आवश्यकताओं कि पूर्ति करनी चाहिए।
11. समुद्र- जिस प्रकार समुद्र में समस्त संसार कि नदियां आकार मिलती है फिर भी समुद्र का स्तर तनिक मात्र भी नहीं बढ़ता उसी प्रकार हमे कितनी भी उपलब्धि मिल जाये हमे अहंकार रूपी भाव का तनिक भी एहसास नही होना चाहिए। समुद्र का स्वभाव खरा होते हुए भी समुद्र एनमे जल को ताप देकर मिट्टी जल के रूप में बादलों का निर्माण करते है एवं समस्त जन का उद्धार करते है। उसी प्रकार इंसान को अपने स्वभाव के विपरीत लोगो के सहयोग हेतु त्याग और परिवर्तन का भाव होना चाहिए।
12. पिंगला- पिंगला नामक एक वैश्या थी जिसने अपना अनुभव दत्तात्रेय भगवान से साझा किया कि जब तक उसने धन संजय हेतु अपने जीवन में लगी रही तब तक उसे रात्रि में नींद भी नहीं आती थी उसे संतुष्टि का अनुभव नहीं होता था। तब उसे पता चला असली संतोष या संतुष्टि केवल ईश्वर ध्यान, ईश्वर भक्ति में ही है। और इसके अलावा इस जीवन कुछ भी उपयोगी नहीं है।
13. मृग (हिरण)- जिस प्रकार मृग अपनी चंचलता के कारण अपने पास आ रहे सिंह को भी नहीं देख पता और उसका शिकार बन जाता है। उसी प्रकार मनुष्य भी मोह, लोभ के बस में आकार जीवन भर संग्रह इत्यादि में ही जूटा रहता है और कब काल के मुह में समा जाता है उसे पता भी नहीं चलता। जब कि उसका भला केवल सत्कर्म, ईश्वर ध्यान, समाज सेवा के द्वारा ही हो सकता था। परंतु मोह, लोभ इत्यादि के बंधन में उसे उचित और अनुचित जीवन में फर्क ही नहीं दिखाई देता है।
14. पतंगा- प्रायः हम वर्षा ऋतु में पतंगो को देखते है जो प्रकाश के प्रेम में उनके पास पहुँचने को आतुर रहते है और अपना जीवन नष्ट कर लेते है। इससे मनुष्य को दो तरह की सीख लेनी चाहिए। एक तो अपने लक्ष्य के प्रति एकदम एकाग्रचित होना जिस प्रकार पतंगे के जीवन का उद्द्येश्य प्रकाश को पाना होता है। दूसरा किसी के मोह में या लोभ में फँसकर अपना अहित नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार पतंगा प्रकाश के प्रेम में अपनी जान ही गंवा देता है।
15. मधुमक्खी- मधुमक्खी से भी हमे दो प्रकार कि शिक्षा प्राप्त होती है एक तो संग्रह की प्रवृत्ति नहीं रखना। जिस प्रकार मधुमक्खी जीवन भर शहद का संग्रह करता रहता है और अंत में कोई अन्य उस शहद के संग्रह को निकाल कर ले जाता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी संग्रह की प्रवृत्ति से दूर रहना चाहिए। द्वितीय मधुमक्खी के शहद से बहुत प्रकार की औषधियों का निर्माण होता है अतः इंसान को भी ऐसे कर्म करने चाहिए जो समाज के हित के उद्द्येश्य से किए जाये।
16. हाथी- हाथी का जीवन एक मदमस्त प्राणी का जीवन होता है लेकिन हथिनी के मोह मे आसक्त आकार शिकारियों द्वारा बनाए गड्डे मे फंस जाता है वैसे ही मनुष्य को किसी आसक्ति के वश में जीवन यापन नहीं करना चाहिए। मनुष्य का जीवन समस्त आसक्तियों से दूर और मुक्त होना चाहिए तभी वो समाज में एक आदर्श जीवन का यापन कर सकता है।
17. मछली- एक शिकारी मछली को पकड़ने के लिए अपने जाल में काटे में मांस का टुकड़ा लगाता है और उस मांस के टुकड़े के मोह में फँसकर मछली अपना जीवन को समाप्त कर लेती है। उसी प्रकार मनुष्य को भी किसी प्रकार के मोह में फँसकर अपने जीवन का सर्वनास नहीं करना चाहिए। और मोह लोभ से मुक्त जीवन के द्वारा ही आदर्श रूप जीवन का अनुसरण करना चाहिए।
18. कुरर पक्षी- कुरर पक्षी जब मांस का टुकड़ा लेकर आसमान में उड़ता है। तो अन्य शिकारी पक्षी उसका पीछा करने लगते है और जब तक कुरर पक्षी उस मांस के टुकड़े को अपने मुह से त्याग नहीं देता है तब तक शिकारी पक्षी उसका पीछा नहीं छोड़ते। इसी प्रकार मनुष्य भी अपनी मोहजाल में फंसा जीवन यापन करता है और फुरा जीवन किसी न किसी परेशानी मे उलझा हुआ दिखाई देता है। अतः इससे सीख लेते हुए मनुष्य को मोह लोभ का परित्याग करते हुए संतुष्टि युक्त जीवन का अनुसरण करना चाहिए।
19. स्त्री- भगवान दत्तात्रेय में एक बार एक स्त्री को देखा की वो धान कूट रही है धान कि कुटाई करते हुए समय उसके हाथ की चुड़ियाँ बहुत ही शोर मचा रही है। और घर में आए हुए मेहमानो को उससे परेशानी होती है। इसके उपाय के रूप में स्त्री अपने हाथ की सारी चुड़ियाँ निकाल देती है और केवल एक चूड़ी पहनकर धान कुटना शुरू करती है जिससे शोर आना बंद हो जाता है। इसी प्रकार इंसान को भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अकेले ही आगे बढ़ना चाहिए और लोगो के प्रपंच में नहीं पड़ना चाहिए।
20. शिशु- जिस प्रकार एक शिशु किसी भी प्रकार के सुख दुख के चक्कर में न रहते हुए हमेशा प्रसन्नचित्त रहता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी सुख दुख, लोभ मोह के चक्कर में न पड़कर प्रसन्नचित्त आनंदमय जीवन का अनुसरण करना चाहिए। जिस प्रकार एक अबोध शिशु भय इत्यादि में न आकार अपना समय बहुत ही प्रसन्नता से जीता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी किसी भौतिक भय से दूर अपने आदर्श जीवन का अनुसरण करना चाहिए।
21. भँवरा- एक भँवरा जब एक कमल पर पराग संग्रह हेतु बैठता है। तो संग्रह में इतना मग्न हो जाता कि उसे सूर्यास्त का एहसास भी नहीं होता और कमल की पंखुड़ियाँ बंद हो जाती है। और भँवरा उसी में फंसकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है। मनुष्य भी अगर संग्रह करने में वह अपने अच्छे बुरे का अनुमान नहीं कर पता है। तो वो भी काल के मुह में पहुँच जाता है और अपना कुछ भी अच्छा नहीं कर पता है।
22. सर्प- साँप से हमे दो तरह कि शिक्षाएं प्राप्त होती है। एक तो सन्यासी या ब्रह्मचारी का जीवन सर्प की तरह होना चाहिए। जिस प्रकार साँप अपना जीवन अकेले व्यतीत करता है तरह जगह जगह विचरण करता रहता है। उसी प्रकार एक ब्रह्मचारी को एकांत और भ्रमणशील जीवन व्यतीत करना चाहिए। दूसरी शिक्षा सर्व समाज के लिए है। जिस प्रकार सर्प अपने दंश मारने की प्रवृत्ति के कारण समाज द्वारा प्रताड़ित होता है वैसे ही मनुष्य का स्वभाव और आचरण उसको समाज में उसका स्थान प्रदान करती है।
23. लुहार- जिस प्रकार लुहार लोहे जैसी मजबूत धातु को गला तपा कर एक नए औज़ार या हथियार का रूप दे देता है। जिसका मूल्य दैनिक जीवन में बढ़ जाता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने अन्तर्मन को ताप और गलन के द्वारा नव निर्माण करना चाहिए। जिसके द्वारा समाज को और जन सामान्य को लाभ की प्राप्ति हो।
24. भ्रंग कीट- भगवान दत्तात्रेय ने भ्रंग कीट का उदाहरण से उस शिक्षा की बात की है जिसके द्वारा मनुष्य सामाजिक और जन समूह में परिवर्तन लाता है। जिस प्रकार भ्रंग कीट एक झींगुर को अपने वश में रख कर उसे अपने अनुरूप परिवर्तित कर लेता है। और वो झींगुर, भ्रंग कीट की तरह व्यवहार करने लगता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी इतनी इच्छा शक्ति रखनी चाहिए जिससे वो किसी व्यक्ति या समाज में परिवर्तन ला सके।
दत्तात्रेय के शिष्य
उनके प्रमुख तीन शिष्य थे जो तीनों ही राजा थे. दो यौद्धा जाति से थे तो एक असुर जाति से. उनके शिष्यों में भगवान परशुराम का भी नाम लिया जाता है. तीन संप्रदाय (वैष्णव, शैव और शाक्त) के संगम स्थल के रूप में भारतीय राज्य त्रिपुरा में उन्होंने शिक्षा-दीक्षा दी. इस त्रिवेणी के कारण ही प्रतीकस्वरूप उनके तीन मुख दर्शाएं जाते हैं जबकि उनके तीन मुख नहीं थे.
मान्यता अनुसार, दत्तात्रेय ने परशुरामजी को श्रीविद्या-मंत्र प्रदान की थी. यह मान्यता है कि शिवपुत्र कार्तिकेय को दत्तात्रेय ने अनेक विद्याएं दी थी. भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें श्रेष्ठ राजा बनाने का श्रेय दत्तात्रेय को ही जाता है.
दूसरी ओर मुनि सांकृति को अवधूत मार्ग, कार्तवीर्यार्जुन को तंत्र विद्या एवं नागार्जुन को रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी. गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेय की भक्ति से प्राप्त हुआ.
गुरु पाठ और जाप
दत्तात्रेय का उल्लेख पुराणों में मिलता है. इन पर दो ग्रंथ हैं ‘अवतार-चरित्र’ और ‘गुरुचरित्र’, जिन्हें वेदतुल्य माना गया है. इसकी रचना किसने की यह हम नहीं जानते. मार्गशीर्ष 7 से मार्गशीर्ष 14, यानी दत्त जयंती तक दत्त भक्तों द्वारा गुरुचरित्र का पाठ किया जाता है. इसके कुल 52 अध्याय में कुल 7491 पंक्तियां हैं. इसमें श्रीपाद, श्रीवल्लभ और श्रीनरसिंह सरस्वती की अद्भुत लीलाओं व चमत्कारों का वर्णन है.
दत्त पादुका
ऐसी मान्यता है कि दत्तात्रेय नित्य प्रात: काशी में गंगाजी में स्नान करते थे. इसी कारण काशी के मणिकर्णिका घाट की दत्त पादुका दत्त भक्तों के लिए पूजनीय स्थान है. इसके अलावा मुख्य पादुका स्थान कर्नाटक के बेलगाम में स्थित है. देशभर में भगवान दत्तात्रेय को गुरु के रूप में मानकर इनकी पादुका को नमन किया जाता है.
‘गुरुचरित्र’ का श्रद्धा-भक्ति के साथ पाठ और इसी के साथ दत्त महामंत्र ‘श्री दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा’ का सामूहिक जप भी किया है. त्रिपुरा रहस्य में दत्त-भार्गव-संवाद के रूप में अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों का उपदेश मिलता है.